पुरुष की वेदना

सच में बड़ी महान हो नारी
बड़ी वेदना सहती हो
पिता के घर से पति के घर तक
बस तुम सेवा करती हो

मगर जहां इस बात का गौरव
मन में तेरे आता है
उसी वक्त बस उसी वक्त
एक पुरुष तुच्छ हो जाता है,

पुरुष वो जो शायद सारे दिन
धूप घाम में दौड़ रहा
गिट्टी, पत्थर ईंटे ढोकर,
अंग अंग है तोड़ रहा

बारिश में भी छोड़ के छत,
वो ओढ़ के पन्नी जाता है,
जो गृहस्थ को खुश रखने को
बारहों मास कमाता है

वो जिसके बल पर हे नारी तुम फरमाइश करती हो
जिसको अपना मान के जिसके आगे ख्वाइश धरती हो
पर किस कुबुद्धि के कारण उसको तुच्छ समझती हो
तुम पुरुषों को दर्द ही क्या है? किस मुंह से यह कहती हो?

माना तुमने लाख सहा है दर्द वेदना अति भयंकर,
पर तुम कभी समझ पाओगी कितना दर्द है सहता एक नर?
उम्र तुम्हारी जिसमें पापा की परियां कहलाती हो
जब तुम सबको अपनी मासूम नादानी दिखलाती हो,

उसी उम्र में कोई नर कंधे पे जिम्मा ढोता है
सोचो वो नर खुद में खुद ही कितना रोता है
शायद ही किसी कलमकार को वो दुख लिखना आता है
शायद ही कोई नर हित में अपना कलम उठाता है

सोचो उस पुरुष की वेदना कितना कुछ वो सहता है
और सोचो इन सबके बाद भी किसको क्या वो कहता है?
खुद में खुद मस्ती में रहता कहां शिकायत करता है
“कितना काम है कितना काम” कह कहां किसी से लड़ता है?

                 – आदित्य कुमार 
                       (बाल कवि)

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