तीन शेर

पैरों में जंजीर बंधा था,
फिर भी ना भय था आंखो में,
था वहीं खून उनके नस में,
जो खून है बहता बाघो में,

शेर को रख के कैद में,
चूहे फांसी की सजा सुनाते थे,
एक दिन पहले ही डर के,
शेर को फांसी पे लटकाते थे,

भारत मा की जय का नारा,
तख्ते पे भी था गूंज रहा,
ना डर था उनको लगता,
खोज रहे यम राज छुपे है कहां।

फिर समय हुआ सात तेईस का,
जल्लाद ने तख्ता खोल दिया,
भारत मा के उन रक्षक ने,
भारत मा का जय बोल दिया।

मौत भी सहम रही आने से,
पर आना तो था ही ना,
मा ने आदेश दिया जाने का,
तो जाना तो था ही ना।

बकरी जिस रस्सी से बंधती थी,
वो संग्रहालय में अब भी पड़ा हुआ,
क्यों ना हो खोजते उस रस्सी को,
जिससे लटक के कोई मरा हुआ।

क्यों ना पूछ रहा है हिंद आज,
वो रस्सी कहां लुप्त हो गई,
जब लाखो वर्ष का सब कुछ है,
तो रस्सी कहां गुप्त हो गई,

राज गुरु, सुख देव, भगत सिंह,
पे आज मुझे कुछ लिखना है,
बस यही चाह अब बची है,
उनके जैसा शेर ही बनना है।

                                 - आदित्य कुमार



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