शिल्पकार और पत्थर
एक बार एक शिल्पकार को,
मूर्ति बनानी थी पत्थर की,
पर पत्थर तो कम पर गए थे,
और मूर्ति भी थी इश्वर की,
गया खोजने जंगल में पर,
उसे पसंद ना आया कोई,
सैकड़ों पत्थर देख लिए पर,
उसके मन को ना भाया कोई,
लौट रहा था घर के पथ पर,
मुख पे बहुत उदासी थी,
भूख से भी बेचैन था और,
गर्दन भी सुखी प्यासी थी,
आगे बढ़ा ज्यों कुछ पग तो,
दो पत्थर उसे दिखे मजबूत,
मुख से गायब हुई उदासी जैसे,
सच को देख के भागे झूठ,
गया शिल्पकार पत्थर से,
पूछा मेरे काम आओगे क्या,
मूर्ति बनानी है गणेश की,
रूप में तुम ढल जाओगे क्या,
एक ने मना किया और बोला,
मैं ना चोट सहूंगा जी,
मै तो यहां पे मस्त पड़ा हूं,
मंदिर में नहीं रहूंगा जी।
तभी दूजा पत्थर बोला,
मुझको ले चल हे शिल्पकार,
थोड़ा दर्द सहूंगा पर,
लेलूंगा इश्वर का आकार,
ले गया तभी वो शिल्पकार,
और अच्छे रूप में ढाल दिया,
छेनी और हथौड़े से उसे,
इश्वर के स्वरूप में ढाल दिया,
यहां पे पहला पत्थर आज,
सड़को पे फेका रहता है,
इधर उधर सब उसे गुरकाटे,
सबकी लातें सहता है।
जिसने थोड़ा दर्द सहा उसको,
इश्वर सा सम्मान मिला,
फूल उसे सब लगे चढ़ाने,
दर्जा उसको भगवान मिला।
- आदित्य कुमार