संविधान का दुख

मै भारत का संविधान मै जनता कि आवाज हूं,
सबको आजादी मैंने दी, क्या मै खुद आजाद हू?
मेरे ही कानून मुझे उल्टा सिखलाया जाता है,
बांध के मुझको बेरी में आजाद बताया जाता है।

यूं तो कहने के खातिर मा भारती का ताज हूं मै,
मेरे ऊपर कितने बैठे फिर भी कहते आजाद हू मै,
यूं तो कहने के खातिर दीन दुखियों की आवाज हूं मै,
लेकिन गर्व से हूं कहता की आज अधिक बर्बाद हूं मै।

मेरे कितने ही मालिक है मेरे कितने ही आका है,
कोई मुझे बदल देता है कोई ग़लत बताता है,
मेरे कितने ही मालिक मुझपे षडयंत्र का चक्र चलाते है,
मेरे आका लोग मुझे संसद में लाखो बार मिटाते है।

कैसे कहूं मै दुख अपना मैंने है कितने दुख ये सहे,
कोई देता गाली मुझको कोई कपटी घूसखोर कहे,
मेरे आका जैसा करते इसमें मेरा क्या दोष है,
गलती सब उन आकाओं कि फिर भी मुझसे क्यों रोष है।

मैंने तो सबको अपना करने का मौलिक अधिकार दिया,
फिर भी अपने फायदे हेतु मुझको कितना बर्बाद किया,
अरे गलती खुद करते हो और मेरी गलती मुझे दिखाते हो,
कानून है मेरा बच्चा और मुझको कानून पढ़ाते हो।

साम दाम दण्ड भेद मै नहीं हूं जानता,
मुझ पे लगाए आरोपों को मै नहीं हूं मानता,
कौन है मेरे मालिक मै तो ये भी नहीं जानता,
जनता हो मेरी मालिक बस यही हूं मै चाहता।

सब मेरे अंतर्गत है मेरा हर मालिक ये कहता है,
लेकिन मेरा हर भाग हर अंग कैद में रहता है,
आज ये कविता पढ़ के मेरे दुख बयान लेलो तुम,
अब तक तुम झूठ से अवगत थे अब सच्चा ज्ञान लेलो तुम।

                                                 - आदित्य कुमार

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