कण कण का अधिकारी

गौरव छोड़ो हे मानव,
तुम केवल तिनके के जैसे हो,
एक फूंक से उड़ जाओगे तुम,
फिर गौरव करते कैसे हो।

ऊपर वाले के नजरों में,
इतना भी गिर मत जाना,
कोई तुम्हे उठा ही ना पाए,
कहीं पड़ ना जाए पछताना।

चलता फिरता मानव तो,
पल भर में राख बन जाता है,
देख करोड़ों का मालिक,
पल भर में ख़ाक बन जाता है।

इन्सान बनाया है उसने,
लक्षण इंसानों सा रखना,
वो तीनो लोक का मालिक हैं,
भूल से भी ना उससे लड़ना।

खुद को स्वीकार करो मानव,
बस इस ब्रह्माण्ड के धूल हो तुम,
पल भर में खिल जाए, मुरझाए,
बस एक ऐसे फूल हो तुम।

 दो कौरि के बन के मालिक,
तुम उससे टकराते हो,
वो मालिक है इस सृष्टि का,
आखिर क्यों भूल ये जाते हो।

छोड़ो अभिमान हे मानव,
तुम जीने केवल आए हो,
ना कुछ लेके जाओगे,
तुम ना कुछ लेके आए हो।

उससे तू ना कभी है ऊपर,
उसका केवल तू आभारी है,
वो तीनो लोक का स्वामी,
इस कण कण का अधिकारी है।

                                - आदित्य कुमार
                                  " बाल कवि "

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