पशुओं के दुख
नृत करता देखा पशुओं को,
खुशी मिली भरपूर हमें,
पर पशुओं का चेहरा लटका था,
दिख रहे थे वो मजबूर हमें,
एक बंदर का चेहरा कहता था,
जंगल में मुझको खिलना है,
स्वतंत्र मुझे कर दो हे मानव,
परिवार से मुझको मिलना है।
खाना समय पे देते हो,
पर खुशी ना उन खानों मे है,
दिखने में तो जिंदा ही है,
पर खुशी ना उन जानो में है।
एक मृग का चेहरा कहता था,
मुझको फिर से दौड़ लगाने दो,
परिवार कि यादें आती है,
जंगल में फिर से जाने दो।
एक सिंह को देखा मैंने,
ये राजा होके भी था उदास,
चेहरा पढ़ने कि कोशिश कि,
मैंने उस सिंह के जाके पास।
मैं जंगल का राजा था,
यहां स्टूल पे मुझे नचाते है,
मुझको तो बिल्ली बना दिया,
पर सिंह बता के नोट कमाते है।
एक हाथी को देखा मैंने,
मासूम सा मुझको घूर रहा,
कह रहा था मानव देख मुझे,
मै हाथी से मजदूर बना।
मेरी सारी ताकत नष्ट करी,
फिर भी ताकतवर बतलाते है,
भोजन तो देते नाममात्र,
पर चाबुक खूब खिलाते है।
और भी काफी ऐसे थे,
जिनके चेहरों से साफ झलकता था,
आजाद हमें करदो मानव,
हर मासूम ये कहता था।
अपनी खुशी के खातिर,
हम ना जाने क्या क्या करते है,
सोचो हम कितने नीच है कि,
खूंखार पशु भी हमसे डरते है।
खुद की आजादी के खातिर,
मानव क्या क्या कर जाता है,
पर उन पशुओं को कैद में रख,
कैसे उनसे खुशियां पाता है।
- आदित्य कुमार