गिर के उठने से डरते क्यों
किरण नहीं डरती है कभी,
रात के उस अंधियारे से,
कहां वो सुबह है करती,
कभी किसी अन्य सहारे से,
चींटी को देखो दीवारों पे,
कैसे चढ़ती है,
सफल नहीं होती जब तक,
तब तक ना बैठा करती हैं।
ना कभी वायु पर्वत से,
डर कर स्थिर सा हो जाता है,
लोहा भी घिस घिस कर,
एक दिन शमशीर सा हो जाता है।
प्रयास बिना जीवन का,
इस धरती पे कोई मोल नहीं,
जो बिन प्रयास के रहते,
उनके अधर पे कोई बोल नहीं,
पुनः पुनः अभ्यास से,
इन्सान बनते देखा है,
पत्थर पे रस्सी घिसने से,
निशान बनते देखा है।
अरे बिन मेहनत के मंजिल चाहा,
तो जीवन बेकार तुम्हारा है,
अभ्यास करो तुम बार बार,
पहले तो इश्वर भी हारा है।
परिपूर्ण ना कोई भी होता,
परिपूर्ण बनाना पड़ता है,
वो जीवन भर तुक्ष्य ही रहता है,
जो गिर के उठने से डरता है।
इन्सान हो तो एक बार में ही,
अंबर सा ना हो जाओगे,
परिपूर्ण का मार्ग तभी खुलता,
गिर के जिस दिन उठ जाओगे।
- आदित्य कुमार