अर्जुन की चिंता
अपनों का लहू बहा के मिला साम्राज्य मुझे स्वीकार नहीं,
भिक्षा है मुझे मंजूर मगर अपनों को बनाना आहार नहीं,
विष्णु जी के रूप हो तो क्यों ना इस युद्ध को टाल दिया,
क्या पाप मेरा था आखिर जो सबको मेरे हाथो काल दिया,
इन प्रश्नों को सुन के नारायण थोड़ा सा मुस्काए थे,
भक्त भ्रमित जो हुआ मार्ग से गीता ज्ञान सिखाए थे,
किस पितामह को लेके तुम ना बाण चलाना चाहोगे,
किस गुरु द्रोण को लेके तुम ना रक्त बहाना चाहोगे,
अरे कुरुक्षेत्र की भूमि है यहां रिश्तों से काम नहीं होता,
शत्रु केवल है खड़े यहां उनका दूजा कोई नाम नहीं होता,
तुम धर्म बचाने आए हो यहां रिश्ता नहीं निभाओ तुम,
सारे है यहां अधर्मी बस अपना गांडीव उठाओ तुम।
माधव मुझको तुम माफ करो ये युद्ध ना मै लड़ सकता हूं
अपनों का लहू बहा दूं इतनी ना क्षमता मै रखता हूं,
उनका काल बनूं कैसे जिन्होंने मुझको चलना सिखलाया है,
बाबा भीष्म और गुरु द्रोण ने ही तो जीवन मेरा बनाया है,
हे पार्थ यूं चिंतित ना हो तुम मै स्वयं तुम्हारे साथ में हूं,
यहां जीवन और मरण सब कुछ रखता मै अपने हाथ में हूं,
काफी समझाया माधव ने तब अंत में अर्जुन मान गया,
मिला ज्ञान गीता का तब ये सब मोह माया बंधन जान गया,
गांडीव उठाया और शत्रु पे तिरों कि वर्षा हुई घनघोर,
मचगई खलबली कौरवों में हाहाकार मच गया चारोओर,
देखत देखत एक एक करके सारे शत्रु को मार दिया,
कुछ ऐसा था युद्ध हुआ पांडव ने अपना अधिकार लिया,
- आदित्य कुमार