ठंड का कहर

ठंडी थोड़ा रुक भी जाओ,
कितना कहर मचाओगे,
वातावरण अस्त व्यस्त है,
आखिर कब तक तुम जाओगे,

सब है आग के पास में बैठे,
सब आग को ही अपनाए है,
कितने तो ये भी भूल गए,
कब आखिरी बार नहाए है,

रजाई के अंदर ब्रेड पकौड़ा,
मिलता हमको पड़े पड़े,
बाहर निकले यदि रजाई से,
बर्फ बन जाए खड़े खड़े,

पिताजी भी गड़ीयाते है,
मा भी चप्पल बरसाती है,
लेकिन हम ना निकले रजाई से,
दीदी भी दो चार सुनाती है,

हे ठंडी अब बहुत हुआ,
हमपे थोड़ा रहम करो,
बहुत मचाया आतंक है तुमने,
कहर ये अपना खतम करो,

कोहरा छाया चौब्बिसो घंटे,
दिन भी तो रात सा लगता है,
बादल आकाश से आए नीचे,
देखने में ऐसा लगता है,

आलस ना जाने क्यों,
ठंडी तुम साथ मे लाती हो,
सारा कसूर होता तेरा,
और गाली हमें सुनवाती हो,

दोनों हाथ जोड़ के ठंडी,
विनती तुमसे करता हूं,
मन मेरा भी करता है कामो का,
पर तुमसे काफी डरता हूं,

तो कृपा करके हे ठंडी,
अपना कम कहर करो थोड़ा,
मन करता कभी नहाने का,
पर तुमने है हिम्मत तोड़ा।

                       - अदित्य कुमार
                           "बाल कवि"




Popular Posts