आजादी परिंदो की

घूमता देख पक्षी आजाद,
मन को अपने ना भाता है,
मन को बहलाने के खातिर,
मानव पक्षी पिंजरे में लाता है,

मां प्रकृति का एक संतान,
दूजे को बंधन में रखता है,
बस केवल इस खातिर,
क्यों कि वो कुछ ना कहता है,

हे मानव क्यों ना समझ रहे,
भले ही है वो बेजुबान,
जैसा जीवन तुमको प्यारा,
वैसे उनको भी प्यारा है जान,

चार दिवारी मे कुछ दिन,
खुद को बंद कर के रखलो,
मन कैसा विचलित होता है,
महसूस जरा कर के देखो,

तुमको तरस नहीं आता क्या,
देख के उन पशुओं की दशा,
पर वो खुद को कोश रहा है,
क्यों जाल में तेरे है वो फसा,

एक बार जड़ा खुद को मानव,
देख कर के बन्द पिंजरे में,
कैसा चैन है मिलता वहां,
कैसी आती नींद पिंजरे में,

बस बोल नहीं सकते लेकिन,
महसूस उन्हे भी होता है,
उसको भी घुटन होती है वहां,
हर एक पल वो भी रोता है,

अब जागरूक होके उन चिड़ियों को,
आजाद करने की है बारी,
मत भूल हे मानव संसार में,
सबको आजादी है प्यारी।

                          - अदित्य कुमार
                             "बाल कवि"

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