सिरमौर

सिरमौर बिना हो सिर कैसा,
सिरमौर ही सिर की शान सुनो,
आज मेरी इस कविता में
 सिरमौर की तुम गुणगान सुनो,

राजा भी सिरमौर से शोभे,
धरा का सिरमौर नभ कहलाता,
मानव का सिरमौर है इज्जत,
उससे मानव जी पाता,

एक बार सोच के देखो तुम,
सिर कैसा हो सिरमौर बिना,
एक परिभाषा मुझको दे दो,
बिन इसके के आखिर कौन यहां,

बड़े राज्य का राजा भी,
यदि खड़ा सिरमौर बिना,
पहचान ही खो दी है उसने,
अब लगेगा वो है चोर खड़ा,

एक साधारण व्यक्ति खातिर,
उसकी इज्जत है सिरमौर सुनो,
बिन इज्जत सिरमौर बिना,
वो भी लगता लतखोर सुनो,

सिरमौर की किम्मत वो ही जाने,
जिसको सिरमौर जुटाना है,
जिनको ये मिली विरासत मे,
उनको बस सिर पे सिरमौर चढ़ाना है,

लेकिन ये याद रखो हरदम,
सिरमौर की रचना स्वयं करो,
घने अंधेरे में हो फंसे तो,
भोर की रचना स्वयं करो,

क्यों कि सिरमौर विरासत की,
केवल जिंदगी चलाएगा,
जीवन ये व्यर्थ हो जाएगा,
जब खुद जीवन जी ना पायेगा,

हाथों की लकीरें खुद रचना,
सिरमौर वही बन जाएगा,
सिर पे तेरे ताज रहेगा और,
सच्चा सिरमौर कहाएगा।।

                         - आदित्य कुमार
                              "बाल कवि"


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