दुख धरती का

धरती चीख रही है मानव,
कुछ पल बस महसूस करो,
धरती के नाशक अपने कर्मो,
पे थोड़ा अंकुश करो,

जिस रात्रि में हम,
गहरी निद्रा में सोते है,
ये पेड़ और नदियां उस रात्रि में,
छुप छुप के रोते है,

वृक्ष पुकार रहे हे मानव,
मेरे महत्व को समझो,
मैं ही हूं जीवन तुम सबका,
मेरे अमरत्व को समझो,

नदियां कहती हे मानव,
मेरे जल से तुम जीते हो,
आज उसे जहरीला करते,
जिस जल को तुम पीते हो,

धरती कहती मानव तुमने,
बूढ़ा मुझको कर डाला,
कभी कभी मैं सोचती हूं कि,
मैंने दुश्मन है पाला,

जिन्होंने दुख ना समझा इनका,
मानव रूपी शैतान है वो,
धरती वृक्ष और नदियों के खातिर,
एक हैवान है वो,

जिस धरती ने पाला सबको,
हम बन बैठे उसके दुश्मन,
अब वक्त पहचानो,
ये धरती ही है सबकी जीवन।।

                        - आदित्य कुमार
                             "बाल कवि"


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