जीवन कर्ण का
आज बैठे बैठे सोचा,
क्यों ना कर्ण मैं बन जाऊं,
खुद के मुख से क्या दुख बीती,
आप सभी को बतलाऊं,
जन्म लिया जिस दिन जननी ने,
गंगा में मुझे छोड़ दिया,
ना जाने क्या पाप था मेरा,
जननी ने नाता तोड़ लिया,
पला बढ़ा मैं सुद्रों के घर,
मेरे पालनहार हुए,
कौरवों के दुर्योधन,
मेरे जीने के आधार हुए,
मित्र बनाया दुर्योधन ने,
जीवन मेरा संवारा था,
वरना तो दुनिया के नजर में,
मैं एक नीच अभागा था,
अंगराज का नाम मिला,
दुर्योधन से सम्मान मिला,
अपने जितने भी थे सबसे,
छल का मुझे इनाम मिला,
अर्जुन मेरा अनुज भ्राता,
पर विधि को ना मंजूर हुआ,
राजपरिवार का बेटा,
अपनों से मैं दूर हुआ,
महासमर था शुरू हुआ,
रण में मैं भी था उतर गया,
मित्रता को निभाया मैंने,
लेकिन जीवन बिखर गया,
मैंने रण मे मित्र के रक्षा,
करने का प्रण ले डाला,
पाप पुण्य के बीच मैं उलझा,
जीवन मकड़ी का जाला,
जो भी हो वो छोड़ के मैंने,
रण में सामर्थ्य दिखाया था,
जीवन से था उठा भरोसा,
मरने को मै आया था,
मेरी ताकत देख के,
माधव भी थोड़े घबराए थे,
इस सूरज के बेटे खातिर,
छल नीति अपनाए थे,
यहां तक कि अंत समय में,
पिता ने भी था छला मुझे,
बस ये ही कुछ कारण है,
ये कर्ण सदा से दुखी मिले,
जननी धरती हर एक मां ने,
इस कर्ण को धोखा दिया सुनो,
बाल कवि के कविता में,
मेरा सारा दुख है मिला सुनो।।
- आदित्य कुमार
"बाल कवि"