मानव नहीं मानव रहा

ईमान बेच बेईमान बना,
छुप छुप के ये इन्सान बना,
ईश्वर को भी है रुला दिया,
इनकी जुर्रत को देख जड़ा,
मानव नहीं मानव रहा।

हर दिल है काला हो रहा,
इन्सानियत है बची कहां,
निज लोग के दुश्मन बने,
ये रोग है संक्रमण बना,
मानव नहीं मानव रहा।

मानव बना है भेड़िया,
और कुछ बने लकड़बग्घा,
जिस मुंह से था भीख मांगा,
उससे ही गाली दिया,
मानव नहीं मानव रहा।

रावण भी इनसे बेहतर था,
था कंश भी इनसे भला,
ये दोष उनको देते है,
पर इन-सा दानव है कहां,
मानव नहीं मानव रहा।

          - आदित्य कुमार
               (बाल कवि)

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