मानव बन बैठा हैवान
निर्जीवों मे जान डालता भूल सजीव के प्राण,
मानवता को बेच के मानव बन बैठा हैवान।
ईश्वर की एक सुंदर रचना बन बैठी बदसूरत,
जिस हृदय में प्रेम भरा बन गई नफरत की मूरत,
अपने मुंह मियां मिट्ठू अज्ञानी खोकर के ज्ञान,
मानवता को बेच के मानव बन बैठा हैवान।
निर्जीवों मे जान.........
केवल अपने स्वार्थ के खातिर हैवानियत अपनाई,
झूठ फरेब और दंभ द्वेष से इन्सानियत भर आई,
ईश्वर को भी शर्मसार कर गए उसके इन्सान,
मानवता को बेच के मानव बन बैठा हैवान।
निर्जीवों मे जान.........
केवल नाम कमाने खातिर ये अच्छे बनते है,
ईश्वर को भी छलने खातिर ये सच्चे लगते है,
इनकी इन करतूतों से खुद हैवानियत परेशान,
मानवता को बेच के मानव बन बैठा हैवान।
निर्जीवों मे जान.........
बेजुबान को मार के पत्थर घर से भगा है देते,
इनकी है औकात कहां एक रोटी खिला सके ये,
बस ये ही परिभाषा इनको करती सदा बयां,
मानवता को बेच के मानव बन बैठा हैवान।
निर्जीवों मे जान.........
- आदित्य कुमार
(बाल कवि)