कर्ण का धर्म

प्रस्ताव रखा जब केशव ने दुर्योधन को था ना भाया,
था काल नाचता सिर उसके माधव को नहीं समझ पाया,

जब ठुकराया प्रस्ताव मूर्ख ने, केशव क्रोधित हो गए थे,
अब सर्वनाश निश्चित है इस चिंतन मे वे खो गए थे,

क्रोध झलकता था मुख पे जब निकले राज महल से वे,
आज वो माधव अलग मिले उससे जो माधव कल थे वे,

रथ पर हुए सवार कृष्ण चल पड़े अश्व पांडव के शिविर,
कुछ दूर चला रथ वही मार्ग मे मिले कृष्ण को दानवीर,

दोनों हाथ किए करबद्ध थे शीश झुकाए अंगराज,
सीने पे कवच, कानों मे कुंडल सिर पे अंग का शोभित ताज,

जब देखा कृष्ण ने कर्ण खड़ा है उन्होंने रथ को रोक दिया,
अंगराज महादानी कर्ण ने चिंतित कृष्ण को टोक दिया,

माधव क्यों चिंतित है आखिर कहां है अधरों की मुस्कान,
सबकी चिंता हरने वाले क्यों चिंतित हो तुम भगवान?

कहे कृष्ण "हे अंगराज कुछ निर्णय लेना है तुमको,
किस पक्ष आओगे युद्ध में तुम ये उत्तर देना है तुमको!"

आज तुम्हे कुछ बतलाता हूं जिसका तुमको ज्ञान नहीं,
कुंती जननी है तेरी तू राधा की संतान नहीं!

धर्मराज है अनुज तुम्हारे तुम अग्रज हो पांडव के,
तुम सम्राट बनोगे क्युकी जेष्ठ भ्राता हो पांडव के,

छोड़ो उस पापी को जिसके साथ नहीं है धर्म कोई,
दुर्योधन का साथ निभाना नहीं भला है कर्म कोई,

साथ नहीं उसका दो जिसने नारी का अपमान किया,
जिसने खुद को भाग्य विधाता से भी ऊपर मान लिया!

केवल उसने अन्याय किया कभी न्याय पक्ष ना ले पाया,
बस मित्र मित्र कहता तुमको अपने फायदे तुम्हे लाया,

है वक्त अभी भी संभल जाओ वरना हे कर्ण पछताओगे,
ना पुण्य मिलेगा कर्ण तुम्हे केवल अधर्म ही पाओगे।"

माधव की बातें पूरी हुई अब कर्ण जड़ा गंभीर दिखा,
कुछ पल सोचा अंगराज और श्री कृष्ण से बोल पड़ा:-

"हे माधव निर्णय क्या ही लूं? है पक्ष मेरा निष्पक्ष सुनो,
ना कोई बात छुपाऊंगा ये निर्णय मेरा स्वच्छ सुनो,

दुर्योधन लाख अधर्मी है ये ज्ञान मुझे भी है केशव!
पर मेरा मित्र है वो आखिर अभिमान मुझे भी है केशव,

जो उसका साथ निभाया तो खुद पे बस पाप ही पाऊंगा,
वो मित्र मुझे स्वीकार हरि चाहे पापी कहलाऊंगा!

क्युकी एक वो ही है जिसने इस कर्ण को है सम्मान दिया,
वरना तो माधव दुनिया ने बस सूद्र कहा, अपमान किया,

ये आज बताते हो तुम कि कुंती मां की संतान हूं मैं,
तो इतना बतला दो केशव, वर्षों से क्यों अनजान हूं मैं?

जब सूद्र कहा इस जग ने तब कुंती का हृदय न जागा,
गंगा को जिसने सौंप दिया फिर उससे जोडूं क्यों धागा?

जब मेरा कोई अस्तित्व न था तब दुर्योधन ने स्वीकारा,
इस सूद्र पुत्र को अंग दिया जो कल का था कोई बंजारा,

दुनिया की नजर मे दुर्योधन ने मान दिया सम्मान दिया,
जब सूद्र मुझे सब कहते थे तब अंगराज का नाम दिया,

ना कोई कुंती आई और सीने से मुझे लगाया तब,
ये सूद्र नहीं है लाल मेरा, इस दुनिया को बतलाया तब,

वो दुर्योधन ही था जिसने धूलों से मुझे उठाया था,
जब सबने था धुत्तकार दिया हृदय से मुझे लगाया था,

तो आज यदि है पाप किया पापी मैं भी बन जाऊंगा,
उस दुर्योधन के खातिर केशव नरक को भी अपनाऊंगा,

वश में हो यदि मेरे माधव ये जग उसके पग मे कर दूं,
जिसने है मुझे संवारा मैं ये जग उसके मग मे कर दूं,

हे केशव क्षमा करो मुझको मुझे मित्र का धर्म निभाना है,
जिसने है मुझको खड़ा किया गिरने से उसे बचाना है,

ये ज्ञात मुझे है हे माधव मैं साथ अधर्म के खड़ा हुआ,
पर कैसा धर्म हो जब जीते जी देखूं मित्र को मरा हुआ?

स्वार्थ नहीं मुझको है पुण्य का, भले हो पाप मेरे मस्तक,
पर जब तक कर्ण रहेगा कोई पहुंचेगा ना दुर्योधन तक।"

                          - आदित्य कुमार
                               (बाल कवि)

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