लम्हें सुरंग में
कैद चालीस जिंदगी है,
काशी के सुरंग में,
जाने फिर भी लोग क्यों है,
क्रिकेट के उमंग में,
किसी का बाप है फसा,
किसी का लाल है फसा,
किसी की जिंदगी पे,
मंडराता काल है हंसा,
किसी के मांग मे भरा,
दो चुटकी सिंदूर का,
हां प्रश्न है सुरंग मे फसें,
उन मजदूर का,
जिनको भय सता रहा है,
जिंदगी से दूरी का,
सोचते है क्या यही अंजाम है,
मजदूरी का?
वो नहीं है सोचते जो,
क्रिकेट के उमंग मे,
कैसे लम्हें बीत रहे,
काशी के सुरंग में....
क्रिकेट से पहले,
इनकी जिंदगी पे ध्यान दो,
यही है जो ढालते है,
अपने हिंदुस्तान को।
- आदित्य कुमार
(बाल कवि)