क्योंकि अब बचपन नहीं...
अब हमारे पग नही हर घर की करते सैर है,
क्योंकि अब बचपन नही, अब नई उमर में पैर है।
अब नही गांव की खेतों की फसल हम काटते,
और ना ही पेड़ों के फल तोड़ कर हम बांटते,
अब नही यारों की महफिल जमती है मचान पर,
कल जहां बिन पूछे जाते अब बना अनजान घर,
अब बगल वाली वो चाची बन गई क्यों गैर है?
क्योंकि अब बचपन नही, अब नई उमर में पैर है।
लुक्का छुपी का वो खेला छुप गया किस ओट में,
जबकि ये खेला रुका न था कभी किसी चोट से,
मंगलू चाचा के जामुन और काकी की मिठाई,
छोड़कर जाने क्या लालच शहर हमको खींच लाई,
जिम्मेदारी के नगर में आए बचपन तैर के,
क्योंकि अब बचपन नही, अब नई उमर में पैर है।
गांव की मीठी हवा को भूल गए हम आए जब,
इस शहर में याद भी न वो हवा खाए थे कब...
कैसा है वो बूढ़ा बरगद अब नही उसकी खबर,
भूल गए उस बागमती को जब से आए हम शहर,
अब न जाने गांव से ये हो गया क्या बैर है?
क्योंकि अब बचपन नही, अब नई उमर में पैर है।
– आदित्य कुमार
(बाल कवि)